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Friday, April 24, 2020

विश्व पुस्तक दिवस::बातें किताबों की

विश्व पुस्तक दिवस 23 अप्रैल,
आज सुबह-सुबह एक पुस्तक का सारांश बच्चों के साथ ऑनलाइन साझा किया।उनको जो बात पुस्तक में अच्छी लगे वह बताने के लिए कहा उसके बाद सौरव का जवाब कुछ ऐसा था-
शुरुआत की 14 पंक्तियाँ उसकी अपनी थी बिल्कुल अपने मन के भाव। इसमें भाषाई त्रुटि के साथ-साथ अशुद्ध वर्तनी है, सच है। लेकिन उसके सपनों ने जो उड़ान भरी है,वह उसकी भावों से स्पष्ट थी। यह एक पुस्तक की ताकत है,जो बच्चे के विचारों में यह आत्मविश्वास ला पाया कि बच्चा अपने अवलोकन को यह शब्द दे पाया।शायद अपने भविष्य के लिए एक सोच.......।शाम 5:00 बजे अजीम प्रेमजी फाउंडेशन रुद्रप्रयाग की तरफ से पिथौरागढ़ के शिक्षक तथा कवि महेश पुनेठा जी का ऑनलाइन व्याख्यान आयोजित किया गया था।जिसमें पूरे प्रदेश भर से शिक्षक जुडे थे। पुनेठा जी अपने दीवार पत्रिका अभियान, शैक्षिक सरोकारों को समर्पित पत्रिका शैक्षिक' दखल 'के संपादन और अपने लेखों, कविताओं ,अपनी पुस्तक' शिक्षा के सवाल' द्वारा हम सबके बीच एक परिचित हस्ती हैं। उनका व्याख्यान शुरू हुआ और उन्होंने अपने जीवन से शुरू करते हुए पुस्तकों को अपनी संस्कृति में शामिल बताया। कुछ ऐसा कैसे हो की पुस्तकें हमारी आदतों में शुमार हो जाए।अपने जीवन के अनुभवों से बताते हैं कि जब मैं पुस्तकों का अध्ययन नहीं करता था तो मैं बच्चों को पढ़ाता था किंतु पुस्तकों के अध्ययन के बाद मैं बच्चों को पढ़ने लगा,अध्ययन ने यह दृष्टिकोण दिया। एक शिक्षक के लिए आवश्यक है कि उन्हें बाल मन की समझ हो, शिक्षा की समझ हो कि आखिर शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य क्या है? क्या रोजगार पाना, परीक्षा पास करना या इससे भी कहीं अधिक कुछ और है?? इसके अलावा शिक्षक का कल्पनाशील होना बेहद जरूरी है और इन सभी गुणों का विकास अध्ययन के द्वारा संभव है। अध्ययन से एक दर्शन से मिलता है, जो जीवन मूल्यों को आगे बढ़ाने का काम करता है। उन्होंने अपनी बातचीत में कुछ लेखकों का जिक्र किया जैसे जान होल्ड, ए एस नील।नील का नाम सुनते ही मैं उनके विद्यालय जा पहुंची 'समरहिल' अनोखे प्रयोग हुए थे वहां ।यह पुस्तक मुझे अजीम प्रेमजी फाउंडेशन रुद्रप्रयाग से पढ़ने को मिली थी। उसको पढ़ने के बाद तो मैं दो या तीन बार सपने में उस विद्यालय जा चुकी हूँ। पुनेठा जी की बात आगे बढाते है और शिक्षा के एक अवधारणा को स्पष्ट करते हुए समझाते हैं, किस प्रकार ज्ञान सृजन पहले चरण अवलोकन से आगे बढ़ता है। अवलोकन प्रत्यक्ष भी होता है और जहां हमारी पहुंच नहीं होती वहां पुस्तकें हैं जिनके माध्यम से हम वहां अवलोकन कर सकते हैं। इस प्रकार ज्ञान की प्रक्रिया का चरण आगे बढ़ते हैं और एक आलोचनात्मक विवेक का विकास होता है।
बड़ा सवाल यह है कि क्या सिर्फ पुस्तकों की उपलब्धता से पढ़ने की संस्कृति विकसित की जा सकती है। अपने अनुभव बताते हैं कि इसके लिए हमें तात्कालिक उद्देश्य छात्रों के सामने देने होंगे। जिससे बच्चों के अंदर रुचि जिज्ञासा उत्पन्न हो सके जैसे दीवार पत्रिका में बच्चे लिखने के लिए पढ़ना शुरू करते हैं और धीरे-धीरे पढ़ना उनकी आदत में शुमार हो जाता है ।
मुझे ध्यान आया जब कक्षा 8 में मैने बच्चों को कवि चंद्रकुवँर बर्त्वाल पर नाटक बनाने के लिए बोला था तो कैसे साहिल दौड़कर मेरे कमरे से जीवनी पर लिखी पुस्तक उठा लाया था । सारे कक्षा के बच्चे उस पुस्तक पर झपट पड़े थे। जिसके लिए फिर मुझे समूह बनाने पड़े, यह तात्कालिक उद्देश्य का ही परिणाम था। उनको नाटक प्रस्तुत करना था तो पढ़ना बहुत जरूरी हो गया था। इसके लिए वे इतने उत्सुक दिख रहे थे।
पुनेठा जी आगे बताते हैं कि रुचि विकसित करने के लिए पुस्तकालयों को गतिविधि केंद्र बनाना होगा।कक्षा शिक्षण के दौरान पुस्तकों पर चर्चा ,पुस्तक में कोई रोचक किस्सा साझा करने से निश्चित रूप से छात्रों में पुस्तकों के लिए आकर्षण बढ़ता है।
           अजीम प्रेमजी फाउंडेशन पुस्तकालय रुद्रप्रयाग 

कुछ प्रश्नों के जवाब में वे बोले कि इंटरनेट इस जमाने में हम भी यदि हम अपने घरों पर रोचक पुस्तकों का कोना रखें तो बच्चे उनसे प्रेम करने लगते हैं। यद्यपि यह उन पर लादी न जाए बच्चे अपने पसंद से पढ़ना शुरू करें। पाठ्यक्रम से बाहर की पुस्तकें भी जीवन के लिए मूल्य विकसित करते हैं। यह समाज बच्चों में संवाद के द्वारा विकसित की जा सकती है या प्रत्यक्ष उदाहरण द्वारा भी हो सकती है। क्योंकि जो छात्र बाकी किताबें पढ़ते हैं उनकी समझ भाषा की अभिव्यक्ति और निश्चित रूप से परीक्षा फल भी सकारात्मक होता है ।क्या बच्चे की मूल संरचना के साथ छेड़छाड़ करना ठीक है? इस प्रश्न के जवाब में वे कहते हैं कि शुरुआत में बिल्कुल नहीं ।जब वह आत्मविश्वास से लिखने लगे तो लेखन के लिए सुझाव भी उसी से संबंधित कुछ पढ़ने के लिए देकर दिए जाने चाहिए। जिससे मैं स्वयं अपने विकास की राह जान सके। दीवार पत्रिका के बारे में बताते हैं कि उनके विद्यालय में जब छात्रों की वर्तनी संबंधी त्रुटियां होती थी तो उसको शुद्ध-अशुद्ध दोनों रूप में प्रस्तुत किया जाता था। उनके विद्यालय में छात्र एक-दूसरे की त्रुटियां देखते थे किंतु त्रुटियाँ विकास की प्रक्रिया का हिस्सा होना चाहिए।पुनेठा जी की बातचीत इसी तरह से कई पुस्तकों के साथ कई व्यावहारिक अनुभव को लिए थी।जो हमारे लिए विश्व पुस्तक दिवस पर यह अनमोल अनुभव की पुस्तक के समान उपहार सा था जैसे एक पुस्तक स्वयं में लेखक के दशकों के अनुभव का संग्रह होती है जो हमें सहज से प्राप्त हो जाता है।।
अजीम प्रेमजी फाउंडेशन से रिचा जी, सोनिया जी और करन जी द्वारा मुझे इस मीटिंग की जानकारी प्राप्त हुई थी इसके लिए मैं इन साथियों का और रुद्रप्रयाग APF केंद्र का हार्दिक आभार व्यक्त करती हूं।

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