1. पृष्ठभूमि
1970 और 1980 के दशक में भारत में हरित क्रांति के कारण कृषि उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन इसके साथ-साथ पारंपरिक खेती, देशी बीज और जैव विविधता पर संकट गहराने लगा। हाइब्रिड बीज, रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों का प्रयोग बढ़ा, जिससे किसानों की आत्मनिर्भरता कम हुई और पर्यावरणीय असंतुलन उत्पन्न हुआ।
इन्हीं समस्याओं के समाधान हेतु उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल ज़िले से एक अनूठा आन्दोलन शुरू हुआ, जिसे हम बीज बचाओ आन्दोलन के नाम से जानते हैं।
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2. शुरुआत और प्रेरणा
स्थापना: वर्ष 1986 में
स्थान: टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड (तत्कालीन उत्तर प्रदेश)
प्रमुख व्यक्ति: विजय जार्डहरी — एक सामाजिक कार्यकर्ता और किसान
प्रेरणा स्रोत:
हरित क्रांति से पारंपरिक खेती पर आए संकट को देख कर।
देशी बीजों का लुप्त होना।
किसानों की कंपनियों पर बढ़ती निर्भरता।
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3. उद्देश्य
पारंपरिक देशी बीजों की रक्षा और संरक्षण करना।
हानिकारक रासायनिक खेती और हाइब्रिड बीजों के प्रयोग का विरोध करना।
जैविक खेती और प्राकृतिक कृषि को बढ़ावा देना।
किसानों को बीज के स्तर पर आत्मनिर्भर बनाना।
कृषि के सांस्कृतिक पहलू को पुनर्जीवित करना।
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4. प्रमुख गतिविधियाँ
(क) बीजों का संग्रहण और संरक्षण
पारंपरिक बीजों को गाँव-गाँव जाकर इकट्ठा किया गया।
बीजों के बीज बैंक (Seed Banks) बनाए गए।
(ख) बीज मेलों का आयोजन
विभिन्न गाँवों में बीज मेले (Seed Fairs) लगाए गए जहाँ किसान बीजों का आदान-प्रदान करते हैं।
(ग) नस्लों की पुनर्प्राप्ति
पुराने, दुर्लभ बीजों को फिर से खेतों में बोया गया।
गढ़वाल में 200 से अधिक किस्मों के पारंपरिक धान (चावल) की खेती दोबारा शुरू हुई।
(घ) प्रशिक्षण और जनजागरण
किसानों को जैविक खेती, मिश्रित खेती, और बीज संरक्षण के लिए प्रशिक्षित किया गया।
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5. आन्दोलन की विशेषताएँ
यह केवल एक कृषि आन्दोलन नहीं, संस्कृति, परंपरा और पर्यावरण की रक्षा का प्रयास है।
आंदोलन में "नवधान्य" जैसे सिद्धांतों को अपनाया गया — अर्थात नौ प्रकार के धानों की परंपरा।
यह एक जनआधारित, विकेन्द्रीकृत आन्दोलन है — जिसमें सरकार से ज्यादा जनता की भागीदारी है।
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6. आन्दोलन का प्रभाव
गढ़वाल क्षेत्र में कई परंपरागत फसलों की वापसी हुई।
किसानों की लागत घटी और आत्मनिर्भरता बढ़ी।
कई राज्यों में किसानों ने इस मॉडल को अपनाया।
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली।
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7. समकालीन महत्व
आज के समय में जब GMO बीज, क्लाइमेट चेंज और किसान आत्महत्या जैसे मुद्दे हैं, यह आन्दोलन और भी प्रासंगिक हो गया है।
बीज बचाओ आन्दोलन हमें सिखाता है कि स्थानीय समाधान, टिकाऊ और सांस्कृतिक रूप से जुड़ाव वाले होते हैं।
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8. चुनौतियाँ
बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रभाव।
सरकारी नीतियों में पारंपरिक बीजों को समर्थन की कमी।
नई पीढ़ी का खेती से दूर होना।
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निष्कर्ष
बीज बचाओ आन्दोलन केवल कृषि या बीज का मुद्दा नहीं है, यह ग्राम्य संस्कृति, पर्यावरण, किसानों की आत्मनिर्भरता और जैव विविधता की रक्षा का आंदोलन है। यह हमें याद दिलाता है कि हमारा भविष्य हमारी परंपराओं में छिपा है।
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